मेरा मूल विषय संविदा श्रमिको का शोषण है। संविदा श्रमिक सभी क्षेत्रो में है और रूलिंग क्लास उनकी इस अवस्था से अनजान है । तथा शोषक वर्ग विकास व देश हित के नाम पर उनका भयानक शोषण कर रहा है। शोषक वर्ग प्रगति व विकास के नाम पर रूलिंग क्लास को भ्रमित कर संविदा प्रथा के नाम पर नई बंधुवा मजदूरी को चलन में लाने में सफल रहा है तथा श्रमिक अशान्ति, तालाबन्दी व कामजोरी के नाम पर संविदा प्रथा को उत्तम उपचार बताने में कामयाब रहा है।
देश और विकास के लिये यह उचित है कि जो श्रमिक कामजोरी करते है उनको हटकर सही श्रमिको को रखा जाना चाहिये इसकी व्यवस्था की जानी चाहिये लेकिन इसके नाम पर सभी श्रमिको को एक ही तराजू में तोलना अनुचित है। यक्षप्रश्न यह है कि जो श्रमिक अपनी सारी जवानी किसी संस्थान उघोग में दे चुका हो क्या उसके साथ ऐसी प्रथा संविदा का उपयोग करना चाहिये ।
जब एक श्रमिक एक ही संस्थान में लगातार कई वर्षो से संविदा पर कार्यरत हो तो ये माना जाना चाहिये कि श्रमिक अपना कार्य उचित तरीके से कर रहा है तभी प्रबन्धन उसके कार्यकाल को बढाता जा रहा है। तथा श्रमिक की आवश्यकता भी संस्थान को लगातार है। इसके पश्चात भी यदि श्रमिक को संविदा पर ही कार्य करना पड रहा है तो यह बात साफ साफ शोषक वर्ग के शक्तिशाली होने व उनके हित में जाती है।
देश में बेरोजगारो की विशाल संख्या को देखते हुये शोषक वर्ग लालायित है कि किस तरह से इस बेरोजगारी को अपने मुनाफे में तब्दील कर लिया जाये , शोषक वर्ग को विशाल बेरोजगारी एक कच्चे माल की तरह लगती है जिसको वह अपने मुनाफे में बदल रहा है।
संविदा श्रमिक वर्ग के लिये इसका बुरा पहलू यह है कि विशाल बेरोजगारो की कतार देख कर वह जैसे तैसे अपनी वर्तमान रोजगार की स्थिति को बचाये रखना चाहता है और अन्तत: उम्र बढ जाने पर दूध में से मक्खी की तरह फेंक दिया जाता है जबकि अब उसके साथ स्वास्थ्य और उम्र भी नहीं होती ।
ये स्थिति ठीक ठीक व्यभिचार की तरह है जब कोई व्यभिचारी व्यक्ति किसी स्त्री की जवानी का उपभोग करने के बाद स्त्री की आयु ढल जाने पर उसका त्याग कर नई स्त्री के साथ हो जाता है।
शोषक वर्ग ठीक इसी तरह से श्रमिक वर्ग के साथ खुलेआम सामाजिक व्यभिचार संविदा प्रथा के नाम पर कर रहा है और हमारा रूलिंग वर्ग आँख बन्द कर व्यभिचारी को प्रोत्साहन दे रहा है।
जब हम सभ्य समाज देश के विकास प्रगति की बात करते है तो संविंदा श्रमिको के साथ होने वाले इस सामाजिक पापकर्म को किस तरह से उचित ठहरा सकते है। जबकि हर कोई व्यक्तिगत जीवन में इस तरह के व्यभिचार को गलत मानता है।
सभी सज्जनो और हर एक पवित्र व्यक्ति को याद रखना चाहिये कि अन्धे रूलिंग वर्ग ( धतराष्ट , भीष्म ) की सज्जनता के बाद भी शोषक वर्ग ( दुर्योघन आदि ) ने जब वाजिब से कम मात्र जीवनयापन के लिये आवश्यक ( 5 गांव ) भी नहीं दिये तो पक्ष विपक्ष ही नहीं गेहूँ के साथ घुन भी उस महासग्राम की भेंट चढ गये थे
देश और विकास के लिये यह उचित है कि जो श्रमिक कामजोरी करते है उनको हटकर सही श्रमिको को रखा जाना चाहिये इसकी व्यवस्था की जानी चाहिये लेकिन इसके नाम पर सभी श्रमिको को एक ही तराजू में तोलना अनुचित है। यक्षप्रश्न यह है कि जो श्रमिक अपनी सारी जवानी किसी संस्थान उघोग में दे चुका हो क्या उसके साथ ऐसी प्रथा संविदा का उपयोग करना चाहिये ।
जब एक श्रमिक एक ही संस्थान में लगातार कई वर्षो से संविदा पर कार्यरत हो तो ये माना जाना चाहिये कि श्रमिक अपना कार्य उचित तरीके से कर रहा है तभी प्रबन्धन उसके कार्यकाल को बढाता जा रहा है। तथा श्रमिक की आवश्यकता भी संस्थान को लगातार है। इसके पश्चात भी यदि श्रमिक को संविदा पर ही कार्य करना पड रहा है तो यह बात साफ साफ शोषक वर्ग के शक्तिशाली होने व उनके हित में जाती है।
देश में बेरोजगारो की विशाल संख्या को देखते हुये शोषक वर्ग लालायित है कि किस तरह से इस बेरोजगारी को अपने मुनाफे में तब्दील कर लिया जाये , शोषक वर्ग को विशाल बेरोजगारी एक कच्चे माल की तरह लगती है जिसको वह अपने मुनाफे में बदल रहा है।
संविदा श्रमिक वर्ग के लिये इसका बुरा पहलू यह है कि विशाल बेरोजगारो की कतार देख कर वह जैसे तैसे अपनी वर्तमान रोजगार की स्थिति को बचाये रखना चाहता है और अन्तत: उम्र बढ जाने पर दूध में से मक्खी की तरह फेंक दिया जाता है जबकि अब उसके साथ स्वास्थ्य और उम्र भी नहीं होती ।
ये स्थिति ठीक ठीक व्यभिचार की तरह है जब कोई व्यभिचारी व्यक्ति किसी स्त्री की जवानी का उपभोग करने के बाद स्त्री की आयु ढल जाने पर उसका त्याग कर नई स्त्री के साथ हो जाता है।
शोषक वर्ग ठीक इसी तरह से श्रमिक वर्ग के साथ खुलेआम सामाजिक व्यभिचार संविदा प्रथा के नाम पर कर रहा है और हमारा रूलिंग वर्ग आँख बन्द कर व्यभिचारी को प्रोत्साहन दे रहा है।
जब हम सभ्य समाज देश के विकास प्रगति की बात करते है तो संविंदा श्रमिको के साथ होने वाले इस सामाजिक पापकर्म को किस तरह से उचित ठहरा सकते है। जबकि हर कोई व्यक्तिगत जीवन में इस तरह के व्यभिचार को गलत मानता है।
सभी सज्जनो और हर एक पवित्र व्यक्ति को याद रखना चाहिये कि अन्धे रूलिंग वर्ग ( धतराष्ट , भीष्म ) की सज्जनता के बाद भी शोषक वर्ग ( दुर्योघन आदि ) ने जब वाजिब से कम मात्र जीवनयापन के लिये आवश्यक ( 5 गांव ) भी नहीं दिये तो पक्ष विपक्ष ही नहीं गेहूँ के साथ घुन भी उस महासग्राम की भेंट चढ गये थे
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